वो दिन याद आते हैं
जब गांव में पाटोल पर गर्मियों के दिनों में शाम होते ही ऊपर चढ़ जाया करते थे और बाजरे की राबड़ी और पुदीने की चटनी या कैरी की छाछ या लौंजी के साथ खाना खाया करते थे।
जब सुबह होती थी पूरी टोली घरों से निकलकर मालियों की ओटड़ी (चबूतरा) पर इकट्ठे हो जाते थे, फिर सिर पर चड्डी और कंधे पर बनियान डाले कुएं पर नहाने चल दिया करते थे।
गांव में धूल भरी आंधियों के दिन
गर्मियों में धूली भरी आंधियों का मजा ही कुछ और था
न जाने क्यूं?
आंखों में धूल जाने का हमें बिल्कुल खौफ न था
हां, शाम को खूब मिट्टी की चुभन संग सो जाया करते थे
तो शाम को कुएं पर जाकर नहा लिया करते थे।
आज आंधियों में शहर की गलियां सूनी है।
न ही बालों में धूल भर जाने से हमें
मां की डांट का डर था
खूब जमकर मस्ती किया करते थे मित्र टोली संग।
आज वो मजा कहां इन शहरों की आंधियों में।
आंधी संग दौड़ा करते थे,
पर न हम थकते
हां, आंधी ही थम जाती थी हमारी मस्तियों के आगे।
वह बचपन आज से अलग था।
सखाओं संग आंधियों में
कभी कागज की फिरकनी बना फिराया करते थे
तो कभी आंकड़े (आक) के पत्तों की फिरकनी।
कभी पॉलीथिन की पतंग बनाते
तो कभी उसमें कपड़े का पूछड़ा बांधकर खूब उड़ाते थे।
आंखों में धूल खूब भर जाया करती थी,
आंखों में धूल खूब भर जाया करती थी, शाम को कुएं पर जाकर नहा लेते थे।
बहुत याद आते हैं वो दिन
जब सखाओं संग निकल जाया करते थे
घापात की लकड़ी ले
हॉकी खेला करते थे
लकड़ी का बेट बना
क्रिकेट का खेला करते थे
बहुत याद आते हैं वो दिन
जब मित्रों संग सरसों की डाले बिना करते थे
बैलगाड़ी या ट्रॉली के पीछे चलकर
किसी पेड़ से उलझ कर नीचे गिरी डाल को इकट्ठा किया करते थे।
फिर उन्हें सूखने पर
सरसों निकाल लिया करते
और उसे बनिये को 10 रुपये किलो बेच दिया करते थे
हां, बहुत याद आते हैं वो दिन
जब नींबू के पेड़ के नीचे गर्मियों में ताश खेला करते थे
कभी रम्मी, तो कभी दहला कट
कभी तेरी तो कभी गोची खेला करते थे
जो पैसे इकट्ठे होते
खाने की वस्तु सब मिलकर खाते थे