- ये जनतंत्र है, इसमें कोई दोराय नहीं। लेकिन सोच तो वहीं राजाशाही है।
- हां, अक्सर सुना है कुछ तो उनकी जुबानी में, कुछ उनके चहेतों से। मेरे गांव का ही किस्सा है सरपंच बनने के लिए लाखों रुपये खर्च किए हैं।
- एक सरपंच और चुनाव जीतने के लिए लाखों रुपये या इससे भी अधिक खर्च कर देता है, पर उसकी सरकार की ओर से तनख्वाह कितनी होती है।
- बहुत कम!
- आखिर इतना जिम्मेदार पद ओर तनख्वाह इतनी कम और सरपंच चुनाव जीतने में लाखों रुपये खर्च कर देता है।
- कोई इतना मूर्ख नहीं जो अपनी मेहनत की कमाई चुनाव जीतने में लुटा दे और तनख्वाह केवल 4-5 हजार रुपये और ज्यादा से ज्यादा 10-15 हजार रुपये मिले।
- कोई अपना घर लूटाने के लिए नहीं बैठा है।
- भाई, यह तनख्वाह तो मूल रकम का ब्याज भी नहीं होता है।
- क्योंकि 2 रुपये सैकड़े से कम ब्याज पर पैसे उधार भी नहीं मिलता।
- जब तनख्वाह से इतनी कम और लाखों रुपये खर्च, दाल में काला है।
- अरे भाई, दाल में काला नहीं पूरी दाल ही काली है और सरकार भी अंधी है।
- यही से शुरू होता है भ्रष्टाचार का खेल।
- सरपंच को पांच साल के कार्यकाल में 5 से 7 करोड़ रुपये का बजट मिलता है। जिसे अपने क्षेत्र के विकास कार्यों पर खर्च करना होता है।
- बेचारे, कई गांव वाले पूरे चार साल तक असुविधाओं से सामना करते हैं फिर जाकर कोई काम होता है।
- भाई, पांच साल में सरपंच बोलेरो गाड़ी में घूमने लगता है और शायद आने वाली पीढ़ी फॉर्चूनर में घूमने लगे, कोई बड़ी बात नहीं है।
- सरपंच के पास एक पांच साल में इतनी प्रोग्रेस, सरकार के पास भी कोई ब्यौरा नहीं कि उसकी सम्पत्ति केवल पांच सालों में इतनी कहां से आई।
सरकार कौन होती है?
- वहीं जनप्रतिनिधि जो सरपंच की तरह ही पैसा बहाते हैं और फिर विकास कार्य कम अपना विकास ज्यादा करते हैं।
भ्रष्टाचार कैसे मिटेगा, भाई
- जब चुनाव आयोग ही चुनाव खर्च विधानसभा के प्रत्याशियों के लिए 40 लाख रुपये और लोकसभा प्रत्याशियों के लिए 95 लाख तय कर सकती है, तो कौनसा जन सेवक होगा जो इतनी बड़ी राशि खर्च केवल 60 हजार रुपये से लेकर 85 हजार रुपये की तनख्वाह पर खर्च करें।
- साफ नजर आता है लोकतंत्र में इतनी बड़ी राशि चुनाव खर्च में चुनाव आयोग ने तय की है लेकिन प्रत्याशी इससे भी अधिक राशि खर्च करते हैं। जिनका ब्यौरा किसीके पास नहीं है।
- अब आप ही बताइए आमजन या गरीब व्यक्ति क्या चुनाव लड़ सकता है।
- इससे साफ जाहिर होता है कि इतनी बड़ी राशि चुनाव खर्च में कोई खर्च करता है, तो निश्चित है वह बड़ी राशि कमाएगा।
- क्योंकि जब युवा एक डॉक्टर बनता है या इंजीनियर बनता है तो वह स्वयं पर खर्च की गई पूरी राशि वसूलता है।
- डॉक्टर साफ कहता है मुझ पर मेरे पिता ने इंवेस्ट किया है तो वह तो वसूलूंगा ही।
- सोच लो आज के युवा की ऐसी सोच है तो फिर केवल 5 साल के लिए इतनी बड़ी राशि दाव पर लगाने वाले जनप्रतिनिधि उसे आमजन से या किसी ठेकेदार से नहीं वसूलेंगे तो कैसे काम चलेगा।
- जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार नहीं करे तो पांच साल बाद उसे झोला लेकर भीख मांगते देखा जा सकता है।
- ये सब भ्रम है कि लोकतंत्र है, जनता की सरकार है, केवल दिखवा मात्र है।
- आज लोकतंत्र की आढ़ में वंशवाद पनप रहा है, जिसे आमजन नहीं समझ रहा है। पार्टियां वंशवाद की सबसे बड़ी पैरवी कार है। जिसे अब तोड़ना बहुत कठिन है।
हां, भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता
जब तक जनप्रतिनिधि करोड़ों रुपये चुनाव जीतने पर खर्च करेंगे
क्योंकि कोई अपना घर लुटाने नहीं बैठा है,
और तनख्वाह इतनी नहीं
कि वो 5 साल में चुनाव राशि की भरपाई कर सके
ये कमजोरी है लोकतंत्र की
तभी तो भ्रष्टाचार हावी है भारतीय संविधान पर।
कहने वाले भले ही कहे
पर लोकतंत्र भी राजतंत्र की तरह रूढ़िवादी हो गया
यहां सरकारी कर्मचारियों का पूरा ख्याल रखा जाता है
कर्मचारियों को महंगाई भत्ता, बोनस दिया जाता है
और राजस्थान में तो अब बुढ़ापे के लिए पेंशन भी
मजदूरों को केवल दिलाशा दी जाती है।