1919 के भारत शासन अधिनियम में यह प्रावधान था कि इस अधिनियम के पारित होने के दस वर्ष बाद एक नया शाही आयोग गठित किया जायेगा। इस आयोग को सरकार के काम की जांच का दायित्व सौंपा जाना था। भारत के राष्ट्रवादियों के बीच 1919 के अधिनियम को लेकर पहले से ही असंतोष था। वे 1919 के संवैधानिक सुधारों को अपर्याप्त बताकर नये परिवर्तनों की मांग कर रहे थे। यद्यपि ब्रिटिश सरकार समय पूर्व किसी भी प्रकार के प्रस्ताव पर विचार करने से इंकार करती आ रही थी, परन्तु 1927 में अनुदारवादी ब्रिटिश सरकार ने आगामी चुनावों के बाद मजदूर दल के हाथों में सत्ता के हस्तांतरण की आशंका से इस महत्त्वपूर्ण मामले को समय पूर्व ही निस्तारित करने का फैसला ले लिया। सरकार ने नवम्बर 1927 में ही एक विधायी आयोग गठित कर दिया, जिसे 'साइमन आयोग' के नाम से जाना गया। अंग्रेज सरकार ने घोषणा की कि इस नियुक्ति के द्वारा यह भारत की समस्याओं पर उदारतापूर्वक विचार करना चाहती है। आयोग की समय पूर्व नियुक्ति के कारणों पर प्रकाश डालते हुए आलोचकों ने न सिर्फ इसके लिए ब्रिटेन की राजनीतिक स्थिति को जिम्मेदार ठहराया है, बल्कि कुछ अन्य कारणों को भी उद्घाटित किया हैं-
अनुदारवादी दल ऐसे समय में भारत में प्रतिनिधिमंडल भेजना चाहते थे, जब भारत में सांप्रदायिक तनाव बहुत ज्यादा हो। सरकार की यह सोच थी कि सांप्रदायिक मतभेदों के कारण भारत के राजनीतिक दल कोई सर्वसम्मत निर्णय लेने में विफल रहेंगे और आयोग को भारतीयों की स्वशासन की क्षमता पर संदेह हो जायेगा।
प्रोफेसर कीथ ने माना है कि साइमन आयोग की नियुक्ति के पीछे एक ओर स्वराजवादियों और दूसरी ओर नेहरू और सुभाष के नेतृत्व में युवा आंदोलन का दबाव भी काम कर रहा था।
आयोग के गठन का मुख्य उद्देश्य था, कि वह जांच करे कि-
भारत की तत्कालीन शासन व्यवस्था किस प्रकार काम कर रही है?
ब्रिटिश शासन में शिक्षा की वृद्धि और प्रतिनिधिक संस्थाओं का विकास कितना हुआ था?
भारत में उत्तरदायी सरकार का सिद्धांत लागू करना कहां तक उचित होगा?
उस वक्त तक जो उत्तरदायी सरकार थी उसका प्रसार या परिवर्तन अथवा संकोचन कहां तक किया जाना चाहिए?
प्रांतीय विधानमंडलों में दूसरा सदन होना चाहिए या नहीं?
सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में गठित सात सदस्यीय आयोग के सभी सदस्य ब्रिटिश थे। भारतीयों के भविष्य निर्धारण के लिए गठित इस आयोग में किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था। इर्विन ने घोषणा की कि भारतीयों को कमीशन की सदस्यता से वंचित इसलिए किया गया है, क्योंकि वे संसद के सम्मुख शासन करने की अपनी क्षमता का सही चित्र प्रस्तुत नहीं कर सके जिससे उनका मूल्यांकन निष्पक्ष नहीं हो सकेगा। फिर भी मई 1927 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री बाल्डविन ने घोषणा की कि "आगे आने वाले समय में हम चाहेंगे कि भारत अधिराज्यों के साथ समानता के स्तर पर संबद्ध हो।" बाल्डविन की घोषणा के परिप्रेक्ष्य में इर्विन ने संवैधानिक विकास की समस्या पर भारतीय जनमत की अभिव्यक्ति की व्यवस्था की। इसके अंतर्गत भारत में केन्द्र और प्रांतों के गैर-सरकारी सदस्यों की एक संयुक्त समिति को कमीशन के सम्मुख अपना मत प्रस्तुत करना था। भारतीय विधानमंडल कमीशन के प्रतिवेदन पर ब्रिटिश संसद की संयुक्त समिति से विचार-विमर्श करने के लिए अपना प्रतिनिधिमंडल भेज सकता है।
साइमन आयोग की नियुक्ति का लगभग सभी भारतीयों ने तीव्र विरोध किया। सभी दलों जैसे कांग्रेस, मुस्लिम लीग के एक वर्ग, हिन्दू महासभा, लिबरल्स फेडरेशन इत्यादि ने इस घोषणा का प्रबल प्रतिवाद किया, और यह साबित किया कि भारतीय प्रतिनिधित्व के मामले में भारतीय जनमत के लगभग सभी वर्गों में मतैक्य है। कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन ने साइमन कमीशन के बहिष्कार का नारा दिया गया। कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. अंसारी ने घोषणा की कि "भारतीय जनता को यह अधिकार है कि वह सभी सम्बद्ध गुटों का एक गोलमेज सम्मेलन या संसद का सम्मेलन बुला कर अपने संविधान का निर्णय कर सके। साइमन आयोग की नियुक्ति द्वारा निश्चय ही उस दावे को नकार दिया गया है। लोकप्रिय सरकार की स्थापना में उठाये जाने वाले किसी कदम या स्वराज संबंधी अपनी योग्यता-अयोग्यता की जांच पड़ताल में हम पक्ष नहीं हो सकते।" निस्संदेह बहिष्कार का तीसरा कारण यह है कि "आयोग में जान-बूझकर भारतीयों को शामिल न करके उनके आत्मसम्मान को आहत किया गया।" इसलिए कांग्रेस ने हर चरण में और हर रूप में आयोग के बहिष्कार का निर्णय लिया।
भारतीय जनमत की प्रतिक्रिया से अवगत होने के बावजूद सरकार ने आयोग को भारत भेजने का फैसला किया। 3 फरवरी, 1928 को आयोग मुंबई पहुंचा। मुंबई में उसका स्वागत काले झंडों, हड़तालों और प्रदर्शनों से हुआ। प्रदर्शनकारियों ने 'साइमन वापस जाओ' के नारे लगाये। जब आयोग दिल्ली पहुंचा तब उसका स्वागत करने के लिए कोई भी भारतीय नहीं था केंद्रीय विधानसभा ने भी उसका स्वागत करने से इंकार कर दिया। आयोग के लाहौर पहुंचने पर लाला लाजपत राय, भगत सिंह और नौजवान सभा के नेतृत्व में विशाल जनसमूह ने विरोध प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने लाठी बरसाई। लाला लाजपत राय को सांघातिक चोट पहुंची, जिसकी वजह से बाद में उनकी मृत्यु हो गयी।
इसी प्रकार लखनऊ, पटना, कलकत्ता तथा अन्य शहरों में भी साइमन आयोग का बहिष्कार किया गया। सारे देश में साइमन आयोग के खिलाफ जो प्रदर्शन हुए, उनका श्रेय मुख्य रूप से कांग्रेस को था। लखनऊ में आयोग का विरोध अद्भुत ढंग से किया गया। कहा जाता है कि कैसरबाग में कुछ ताल्लुकदारों ने आयोग को दावत दी। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को दूर रखने के लिए पूरे बाग की घेराबंदी कर दी। इसके बावजूद दावत शुरू होते ही अनगिनत काली पतंगें और बैलून आकाशमार्ग से वहां आ पहुंचे, जिन पर लिखा था, 'साइमन वापस जाओ, भारत भारतवासियों का है।' देशव्यापी प्रदर्शनों को दबाने की सरकार ने पूरी कोशिश की, परन्तु विरोध एवं प्रदर्शन कम नहीं हुए।
आयोग के प्रति विरोध प्रदर्शित करने में कांग्रेस के साथ-साथ किसान मजदूर पार्टी, लिबरल फेडरेशन, हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की भी भूमिका थी। यद्यपि मुस्लिम लीग में साइमन आयोग के बहिष्कार के सवाल पर 1928 में फूट पड़ गयी और आयोग के साथ सहयोग के पक्षपातियों का एक गुट लीग से अलग हो गया, मुहम्मद अली जिन्ना कमीशन के बहिष्कार के सवाल पर कांग्रेस के साथ थे। देशव्यापी विरोध के बावजूद देश का परम्परागत ब्रिटिश समर्थक वर्ग, जिसमें देश के राजे-महाराजों, जमींदार और तालुकेदार शामिल थे, आयोग का समर्थन करते रहे। परन्तु इनका समर्थन देश की राष्ट्रीय मानस को प्रतिबिम्बित नहीं करता था।
आयोग ने अनेक प्रतिरोधों के बावजूद भारत में अपना काम किया और अपनी रिपोर्ट पेश की। यह रिपोर्ट 1930 में प्रकाशित हुई। आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि-
भारत में संसदीय या उत्तरदायी शासन का प्रयोग सफल नहीं रहा है।
द्वैध शासन का तुरंत अंत कर दिया जाना चाहिए और प्रांतों में विधानमंडलों के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों को शासन भार सौंप दिया जाना चाहिए।
यह समझ लेना चाहिए कि भारत के लिए एकात्मक राजव्यवस्था उपयुक्त नहीं है और यह आवश्यक है कि वह यथाशीघ्र एक संघ-राज्य के रूप में विकसित हो ।
सार्वभौम वयस्क मताधिकार की बात सोचना अव्यावहारिक है, किन्तु धीरे-धीरे मताधिकार और विधानमंडलों का विस्तार किया जाना चाहिए।
केन्द्रीय व्यवस्था में कोई आमूल परिवर्तन आवश्यक नहीं है, किन्तु केन्द्रीय विधानमंडल के दोनों सदनों के लिए सदस्यों का चुनाव प्रांतीय विधानमंडलों द्वारा परोक्ष रीति से किया जा सकता है। केन्द्रीय व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन बाद में जब देश की व्यवस्था का संघीय आधार पर पुनर्गठन हो जाये, तब हो सकते हैं। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली निन्दनीय है, किन्तु फिलहाल उसके सिवाय दूसरा रास्ता नहीं है।
यद्यपि भारतीय जनमत ने इस प्रतिवेदन को बिल्कुल ठुकरा दिया और ब्रिटेन में श्रमिक दल की सरकार ने भी इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया, तथापि वर्षों बाद 1935 के भारतीय शासन अधिनियम में इसकी बहुत-सी सिफारिशों को मूर्त रूप मिला। इस बीच भारतीय भी शांत नहीं बैठे रहे। उन्होंने स्वयं अपने लिए संविधान की एक रूपरेखा तैयार की, जो 'नेहरू रिपोर्ट' के नाम से विख्यात है। साइमन आयोग ने अप्रत्यक्ष रूप से और "अस्थायी तौर पर ही सही, देश के विभिन्न समूहों और दलों को एकजुट कर दिया।"