परंपराएं कभी मरा नहीं करती, बल्कि कुछ समय बाद फिर नए रूप में जिन्दा हो जाती है, फर्क इतना है ये परम्पराएं आधुनिक बौद्धिक वर्ग की आजीविका का जरिया बन जाती है।
वर्तमान में राजनीतिक दल लोकतंत्र की बातें अवश्य करते हैं लेकिन इन दलों में पलते वंशवाद का आज का बौद्धिक वर्ग बड़े अच्छे तरीके से पक्ष रखते हैं।
कितना सही है किसी परिवार के लोगों को राजनीति विरासत देना।
कई कहेंगे आप गांधी परिवार की बात कर रहे हैं उनके काबिलियत पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं।
जी, नहीं मैं तो उन सभी परिवारों की बात कर रहा हूं जो राजनीति में अपनी संतानों को अपनी विरासत सौंपते हैं।
गांधी परिवार ही नहीं देश के कई राजनीतिक दलों में कई परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत संभाल रहे हैं।
कई परिवार तो ऐसे हैं जिन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे वही पार्टी उनके परिवार का ही एक हिस्सा है। उसी परिवार के सदस्य उस पार्टी के सर्वोसर्वा होते हैं यानी अध्यक्ष भी उनका ही परिवार का सदस्य होता है।
हां, राजनीतिक विरासत का लाभ कई परिवार के सदस्यों को सीधा बड़ा पद दे देता है, फिर क्या ओर कोई चारा भी तो नहीं होता।
लोकतंत्र में पलता वंशवाद, क्या मिटा पाएगी कोई सरकार
- अब ऐसा नहीं है लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के बड़े नेता अब अपने परिवार के सदस्यों को राजनीति में उतरते हैं और वे बड़ा तर्क देते हैं
- कि जनता और आलाकमान ने उनकी काबिलियत को देख चुना है, अजी ऐसा तो राजा भी कहता था, परंतु राजा के मरने के बाद उत्तराधिकार का संघर्ष आज राजनीति में भी देखने को मिलता है।
- अब यह वंश वाद किसी भी पार्टी या सरकार से नहीं मिटा सकता है।
- कई बार परिवार के सदस्य होने पर पार्टी में सीधा बड़ा पद मिल जाता है। यहां तक कि महासचिव भी बने जाते हैं और जनता के सामने बड़ा चेहरा पल दो पल में।
ये बड़े नेता कभी नहीं सोचते हैं कि पार्टी के वे सदस्य जो वर्षों से पार्टी की सेवा कर रहे हैं क्या उन्हें चुनाव लड़ने का हक नहीं है।
क्या वे केवल पार्षद तक ही सीमित रह जाएंगे।
कितने सदस्य होते हैं एक पार्टी में?
शायद बड़ी पार्टी में तो करोड़ों की तादाद में।
फिर क्यों नहीं मौका मिलता है उन सदस्यों को जो पार्टी के लिए दिन—रात एक करते हैं।
क्यों बारबार उन्हें ही मौका मिलता है जिसे जनता नकार देती है, जिसे पराजय का मुंह देखना पड़ता है।
खैर, लघु संसद का सच में इतना ही कहना चाहता हूं जनता को चाहिए वे योग्य व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनें।
पार्टी या किसी राजनीतिक दल के बड़े नेता के बेटे को देखकर नहीं चुने।
आप मतदाता है, आपके सामने विकल्प नहीं होता
यदि नोटा मजबूत होता तो निश्चित देश का एक बड़ा वर्ग नोटा को हिट बना देता क्योंकि आज के नेताओं में घर भरने के सिवाय विकास करने वाली काबिलियत है ही नहीं।
आज लोकतंत्र में जिस प्रकार की घटनाएं घट रही है उससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि व्यवस्थाएं कोई बुरी नहीं होती है, केवल मानव में पलती नकारात्मक महत्त्वाकांक्षा और स्वार्थ सब व्यवस्थाओं को बुरा बना देता है।
बस बौद्धिक वर्ग की कला है जो सिर्फ व्यवस्थाओं का बचाव या उनकी खामियों को गिनाने की।
न पलने दो वंशवाद को, मजबूत बना दो नोटा (NOTA) को।।