जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर थे। उन्होंने अहिंसा पर विशेष जोर दिया है।
एक आदमी जलते हुए जंगल के बीच में एक ऊंचे पेड़ पर बैठा है, वह सभी जीवों को मरते हुए देखता है और खुश होता है, लेकिन वह यह नहीं जातना कि जल्द ही उसका भी यही हाल होने वाला है, वह व्यक्ति अत्यंत मूर्ख है।
शांति और आत्म-नियंत्रण ही सही मायने में अहिंसा है।
खुद पर विजय पाना,
लाखों शत्रुओं पर विजय पाने से बेहतर है।
प्रत्येक आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है। आनन्द बाहर से नहीं आता है।
आत्मा अकेले आती है, अकेले चली जाती है। न कोई उसका साथ देता है, न कोई उसका मित्र बनता है।
भगवान का कोई अलग अस्तित्व नहीं है। हर कोई सही दिशा में सर्वोच्च प्रयास करके ईश्वरत्व प्राप्त कर सकता है।
सभी मनुष्य अपने स्वयं के दोष की वजह से दुखी होते हैं और वे खुद अपनी गलती सुधार कर प्रसन्न हो सकते हैं।
अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है जो सबके कल्याण की कामना करता है।
जिस प्रकार आग ईंधन से नहीं बुझाई जाती है, उसी प्रकार कोई जीवित प्राणी तीनों दुनिया की सारी दौलत से संतुष्ट नहीं होता है।
हर जीवित प्राणी के प्रति दया रखना ही अहिंसा है। घृणा से मनुष्य का विनाश होता है।
प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है।
मुझसे नहीं डरोगे तो चलेगा, पर कर्मों से डरना क्योंकि कर्मों ने तो मुझे भी नहीं छोड़ा।
किसी आत्मा की सबसे बड़ी गलती अपने वास्तविक रूप को ना पहचानना है और यह केवल स्वयं को जानकर ही ठीक की जा सकती है।
आपकी आत्मा से परे कोई भी शत्रु नहीं है। असली शत्रु आपके भीतर रहते हैं, वो हैं क्रोध, घमंड, लालच, आसक्ति और घृणा है।
अगर हमने कभी किसी के लिए अच्छा काम किया है तो उसे भूल जाना चाहिए और अगर कभी किसी ने हमारा बुरा किया है तो हमें उसे भी भूल जाना चाहिए।
हर एक प्राणी का सम्मान करना ही अहिंसा कहलाती है।