- एक नए भारत के लिए हर भारतीय को बहुत कुछ त्याग करना होगा...
- किसी भी देश की संस्कृति अपने आप में एक अलग पहचान रखती है और वहां के लोगों के लिए गर्व एवं सम्मान की बात होती है। यह स्वाभाविक भी है और हर धर्म, समाज और जातियों को इसका निष्पक्ष हृदय से सम्मान करना चाहिए, क्योंकि मानव का मानव द्वारा सम्मान ही हमें श्रेष्ठ बनता है। भारतीय संस्कृति भी अपने विकास में एकदम स्वतंत्र है यानी यहां की हर व्यवस्था को यदि रूढ़िवादी न मानकर उसका विश्लेषण करें तो निश्चित ही यह अपने ध्येय में सफल रहेगी।
- हां यह आज के संदर्भ में रूढ़िवादी हो सकती है, किन्तु भारत जैसे अधिक जनसंख्या वाले देश में उसकी उपयोगिता को हम आश्रम व्यवस्था से समझ सकते हैं। कई विद्वान हमारी आश्रम व्यवस्था को रूढ़िवादी बताते हैं। लेकिन इसके पीछे के सच को कोई विद्वान समाने लाने से क्यों कतराते हैं, शायद एक संस्कृति लोगों की नजरों में सम्मानीय हो जाएगी। यदि ऐसी सोच है तो विश्व का कल्याण कभी नहीं हो सकता।
क्या है आश्रम व्यवस्था
- भारत में प्राचीनकाल में आश्रम व्यवस्था को अपनाया जाता था। इस व्यवस्था में एक व्यक्ति को अपने जीवनकाल को 100 साल मानकर एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था अपनाई जाती थी, जिसमें वह अपने जीवन को सार्थक बना सके। यानी उसे जन्म से उम्र के 25 वर्षों तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना होता था।
- उसके बाद गृहस्थ आश्रम 25 वर्ष से लेकर 50 साल की आयु तक होती थी। 50 से 75 वर्ष तक संन्यास आश्रम और 75 से मृत्यु तक वानप्रस्थ आश्रम होता था। इस व्यवस्था के प्रति आदमी पूर्ण समर्पित रहता था।
क्यों अपनाते थे आश्रम व्यवस्था
- क्या कारण हो सकता है कि प्राचीन भारत के लोग आश्रम व्यवस्था का पालन करते थे? यदि इसे वर्तमान संदर्भ में देखें तो निश्चित ही बहुत उपयोगी हो सकता है क्योंकि बढ़ते अपराध और बेरोज़गारी के दौर में यह व्यवस्था काफी कारगर साबित हो सकती है। लेकिन महत्त्वाकांक्षा के इस दौर में कोई इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होगा, क्योंकि सभी को विकास चाहिए, फिर भले ही युवा शक्ति उपेक्षित होती रहे और बुजुर्ग व्यक्ति यह कह कर उत्साहित होता रहे कि उम्र के पड़ाव में भी वह कितना एक्टिव है।
- ब्रह्मचर्य व्यवस्था आज के संदर्भ में कई अपराधों से बचा सकती है, लेकिन कोई इसका पालन नहीं करना चाहता है। करें भी कैसे?
- हुस्न है सुहाना, इश्क़ है दीवाना
रूप का खज़ाना, आज है लुटाना
आ के दीवाने मुझे सीने से लगा
ना ना ना
गोरिया चुरा ना मेरा जिया
हुस्न है सुहाना... - जब चारों ओर कामुकता को एक बिजनेस के रूप में परोसा जा रहा हो तो फिर कैसे संभव है।
क्या आश्रम व्यवस्था युवा के लिए अच्छी थी
- भारत में आश्रम व्यवस्था व्यक्ति को अपनी उम्र के साथ अपने कर्त्तव्यों का स्मरण कराती रहती थी। जो समाज हित में और युवा को अपने विकास के लिए पूरा मौका देती थी।
- जैसे- एक सैनिक उम्र के साथ रिटायर हो जाता था तो युवा को देश सेवा का मौका मिलता था।
- कोई अधिकार या कर्मचारी रिटायर के बाद निस्वार्थ भाव से समाज सेवा या फिर वह संन्यास धारण कर लेता था ताकि अपने परिवार और युवा के निर्णयों में अडंगा न लगा सके।
- यह व्यवस्था भारतीय संदर्भ में बहुत सही है क्योंकि यहां की जनसंख्या बहुत है। ऐसे में युवा को रोजगार मिलेगा तो समाज में आपराधिक प्रवृत्तियों में कमी आएगी।
- भले ही कोई इस बात को स्वीकार न करे लेकिन आज जिस कदर अपराध बढ़ रहे हैं। उनमें कहीं न कहीं काफी हद तक युवा का बेरोजगार होना है।
- उसे आज बुजुर्ग और रिटायर कर्मचारियों से संघर्ष करना पड़ रहा है।
- आज एक रिटायर अधिकारी या कर्मचारी अपने अनुभव और जानकारी से उसी विभाग में संविदा पर लग जाता है, जोकि युवा भारत के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है।
- आज रिटायर के बाद वह व्यक्ति कहता है अब मैं क्या करूं?
- पहले के व्यक्ति जब रिटायर हो जाते थे तो वे निस्वार्थ भाव से समाज सेवा करते थे, आज भी वैसा ही किया जा सकता है, लेकिन पैसे का मोह और अन्य लोभ आज के बुजुर्गों को यह करने नहीं देता है।
- जैसे- एक बेटा चाहता है कि उसके पिता रिटायर के बाद कमाता रहे, चैन से नहीं बैठे।
- कई खुद को काम के प्रति सजग तो दिखाते हैं लेकिन असली चाहत पैसे होती है।
- कई बुजुर्ग खुद को स्वतंत्र रखना चाहते हैं और अपनी संतान पर भार नहीं बनना पसंद करते हैं।
- सच है पर जहां का युवा श्रम अधिक हो और वह उपेक्षित हो, वहां आश्रम व्यवस्था कारगर सिद्ध हो सकती है।
- इसके लिए हमें धैर्य रखना होगा और हमारे श्रेष्ठ रिटायर्ड व 60 वर्ष के लोगों को त्याग करना होगा।
निष्कर्ष
- प्राचीन काल में यह मजबूत भारतीय मानसिकता का उदाहरण ही नहीं थी बल्कि भारत की सम्पन्नता का आधार थी। क्योंकि व्यक्ति खुद को इस व्यवस्था में बांध लेता था। जिससे युवाओं के लिए रोजगार के अवसर अधिक और सुगमता से मिल जाते थे। यही नहीं उन्हें कम प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती थी।
- साथ ही बुजुर्गों में अपने समाज के प्रति स्वतः दायित्व निभाने की ललक रहती थी और वे निःस्वार्थ भाव से समाज सेवा करते थे।
- युवा के लिए न सही लेकिन देश हित में बुजुर्ग व्यक्तियों को त्याग करना चाहिए।
राकेश सिंह राजपूत
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