यूनिसेफ ने जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और बच्चों पर उसके प्रभावों को लेकर चिंता जताई है कि 100 करोड़ बच्चों पर जलवायु परिवर्तन का खतरा।
जी, ये पूछो खतरा आज के समय में किस पर नहीं है। सब पर खतरा मंडरा रहा है। किसी देश पर आतंक का साया है तो एक धर्म को दूजे धर्म वालों से खतरा है।
हां, एक बात है प्रकृति के नष्ट होने का किसी को खतरा नहीं है, कुछेक प्रकृति प्रेमियों को छोड़कर।
यही विडम्बना है मानव जाति की। हमें सभ्य हुए करीब 2000 वर्ष हो गए, वैसे सभ्यता के विकास को देखें तो करीब 5 हजार साल। इस दौरान मानव ने प्रकृति का सबसे ज्यादा संरक्षण किया।
लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद से करीब 275 सालों में मानव सभ्यता काफी अर्थों के विकसित हो गई।
आज विकसित और विकासशील देश आधुनिकता से उत्पन्न असंतुलन के खतरे से भयभीत है, परंतु मजाल जो भौतिक रसों को त्याग दें।
जलवायु परिवर्तन बड़ी चिंता है। यूनिसेफ जोकि बच्चों के विकास एवं सुरक्षा से संबंधित वैश्विक संस्था है। बच्चों को लेकर चिंतित है। उसने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया के 100 करोड़ बच्चों पर जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के प्रभाव का खतरा है। ये बच्चे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के 'बेहद उच्च जोखिम' की जद में है।
इस श्रेणी में हमारा देश भी शामिल है। हां, पर माता-पिता को चिंता कहां, सब ही तो भाग रहे हैं बच्चों के भविष्य के लिए ताकि उन्हें वह हर सुविधा दी जा सके जो विज्ञान ने पेदा की है।
प्रकृति की गोद में अब उन्हें नहीं जीने देंगे, क्योंकि मिट्टी में खेलने वाले बच्चे केवल स्वस्थ जीवन और मानसिक रूप से मजबूत होते हैं। पर इसकी अब उन्हें आवश्यकता नहीं उनके बच्चे मिट्टी में खेलेंगे तो बीमार पड़ जाएंगे। धूल लगेगी तो गंदे हो जाएंगे।
उनके बच्चे उनकी तरह अभावों में थोड़े जीयेंगे। उन्हें 18 किलोमीटर दूर कॉलेज में पढ़ना है तो मोटरसाइकिल या फोर व्हीलर थमा दी जाती है, ये कष्ट कोई नहीं करता कि बच्चा इतनी दूर जाकर पढ़कर आएगा। एक घंटे ट्रैफिक में फंसा रहेगा।
अरे, भाई उन्हें वहीं नजदीक की कॉलेज में एडमिशन करवा दो या फिर वहीं रूम दिला दो।
नहीं, जी उस कॉलेज से जॉब प्लेसमेंट अच्छा होता है। बच्चे को जल्द कोई कंपनी हायर कर लेगी।
शहर बसा दिए सभी को सारे काम के लिए 20 किलोमीटर रोज जाना होता है। कारें, मोटरसाइकिलें जुओं की तरह रेंग रहे हैं। पहले का आदमी 35 किलोमीटर 7 घंटे में दूरी तय कर लेता था, नाकों में वाहनों का धुआं नहीं होता था और अब सिर्फ 12 किलोमीटर प्रतिदिन जाने-आने में सारे कपड़ों पर कार्बन का कालिख जमा हो जाता है और यदि कोई घर आकर अपने नाक-मुंह सफेद रूमाल से पौंछ ले तो रूमाल अपना रूप त्याग दे।
ये प्रदूषण कहां से आया, गाड़ियों से
गाड़ियां कंपनियां बना रही हैं, लोग खरीद रहे हैं, कई घरों में तो जितने आदमी नहीं उससे अधिक गाड़ियां खड़ी रहती है। भांति-भांति प्रकार की लग्जरी गाड़ी। लोग अपनी सुख-सुविधा के लिए लेते हैं। उन्हें यह नहीं बताया जाता है कि इसका मितव्ययी उपयोग करना।
जी, रॉयल अंदाज दिखाओं अपना ताकि लोग आपकी और देखते ही रह जाए।
जी, गाड़ी का एसी शानदार है, बिल्कुल गर्मी नहीं लगेगी। पर ये नहीं बताते हैं कि यह पर्यावरण में कितना जहर घोलेगी।
जी, उनकी मजबूरी है, अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी गाड़ी नहीं बिकेंगी। कंपनी घाटे में चली जाएगी।
क्या फर्क पड़ता है लोगों पर और वाहन निर्माता कम्पनियों पर पर्यावरण प्रदूषण पर छपने वाली रिपोर्टों का कब से ये रिपोर्ट छप रही है। वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो डि जेनेरो में पृथ्वी सम्मेलन हुआ तब अब तक करीब 30 साल हो गए हैं। इसमें बहुत वादे किए गए विभिन्न देशों ने पृथ्वी बचाने के लिए किंतु सब डरते हैं नोट छापने वाली मशीन की गति थामने से।
यूनिसेफ की चिंताएं व्यर्थ है क्योंकि आज का मानव पहले के मानव की तरह नहीं है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए त्याग करें।
ये आज का मानव है जिसे केवल लाइफ एंजॉय करना सीखाया जाता है। उसे प्रेरित किया जाता है लग्जरी लाइफ जीने के लिए, लग्जरी गाड़ियां खरीदने के लिए।
हां, आज के छोटे-छोटे बच्चे सब गाड़ियों की खूबियों को चुटकी में बता देते हैं।
मोटरबाइक से ऐसे-ऐसे स्टंट दिखाये जाते हैं कि वे डर के आगे जीत मानते हैं, फिर भले ही जान चली जाए।
आज के दौर में गाड़ियों की रेस पर अरबों रूपये खर्च किए जा रहे हैं, फॉर्मूला रेसिंग, बाइक रेसिंग के लिए प्रेरित किया जा रहा है।
रिकॉर्ड बनाए जा रहे हैं, कोई आसमान से अधिक उंचाई से वायुयान से छलांग लगा रहा है, तो कोई सबसे कम उम्र में पूरी पृथ्वी के चक्कर लगाने का रिकॉर्ड बनाने के लिए चल पड़ा है।
हां, ये सब मानव को पीछे धकलने, उसे हतोत्साहित करने वाली बातें अवश्य हैं, किंतु यह सच है कि यूनिसेफ एवं अन्य लोगों ने हमें बहुत पहले ही आगाह कर दिया है। यदि हम संभले नहीं तो ये मौजें बहुत जल्द खत्म हो जाएंगी।
ये संस्थाएं हमें बताना चाहती है कि हमें ऐसा विकास करना चाहिए जिससे हमारी आने वाली पीढ़ियां सुरक्षित रह सकें।
हां, यदि ये रूढ़िवादी सोच है तो फिर यूनिसेफ या अन्य संस्थाओं को भी बच्चों या पर्यावरण को लेकर ऐसी रिपोर्ट बनाकर प्रकाशित करना भी बेतुक है, क्योंकि चिंता करने से कुछ नहीं होता है उसका समाधान करना जरूरी है।
आज का बौद्धिक वर्ग चिंता जाहिर करेगा, सभी सोशल मीडिया के माध्यम से हर दिवस पर एक-दूजे से त्याग की बातें करेंगे, संकल्प लेंगे पेड़—पौधे लगाने, प्रकृति बचाने के लिए पर त्याग की बात कोई नहीं करेगा।
सबको आर्थिक विकास चाहिए जो हो रहा है, पर पसरती भौतिकता ने मानव जाति का विनाश तय कर दिया है।
एक प्रकृति थी ऐसी
जिसने पेड़-पौधे, जीव बनाएं
फिर मानव आया
और उसने प्रकृति की नकल कर डाली
और आज भौतिकता का खुदा बन बैठा
सब कुछ बना दिए प्लास्टिक के
यहां तक मानव का विकल्प भी
हां, एक दिन भौतिकता का ईश्वर अदृश्य शक्ति बन अवश्य जाएगा।