- क. चोल-चालुक्य साम्राज्यों के पतन के बाद दक्षिण में चार प्रादेशिक राज्यों का उदयः
देवगिरि के यादवः-
- स्वतंत्र यादव साम्राज्य के संस्थापक भिल्लम ने चालुक्यों के विरूद्ध आक्रामक गतिविधियां प्रारम्भ करके अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और इस नए राज्य की राजधानी देवगिरि की नींव डाली।
- अंतिम यादव शासक शंकरदेव के शासनकाल में देवगिरि को दिल्ली सल्तनत में शामिल कर लिया।
वारंगल के काकतीयः-
- काकतीय कल्यानी के चालुक्यों के सामन्त थे। लगभग 1162 ई. में काकतीय रूद्रदेव ‘प्रताप रूद्र देव प्रथम’ ने चालुक्य शासक तैलप तृतीय को पराजित करके काकतीय वंश की नींव डाली।
- रूद्र प्रथम ने वारंगल का विस्तार करके उसे काकतीय साम्राज्य की राजधानी बनाया।
- गणपति ने विदेश व्यापार को प्रोत्साहन दिया और विदेश व्यापार में बाधक तटकरों को समाप्त किया। उसके षासन काल में मोत्तुपल्ली आंध्र का प्रसिद्ध बंदरगाह था।
- मार्कोपोलों ने रूद्राम्बा ‘गणपति की पुत्री’ महिला शासिका की प्रशासनिक क्षमता की बहुत प्रशंसा की हैं। रूद्राम्बा ने प्रतापरूद्र को गोद लिया
- 1322 ई. में गयासुद्दीन तुगलक के पुत्र उलुग खां ने प्रतापरूद्र देव को पराजित करके बंदी बना लिया।
द्वारसमुद्र के होयसलः-
- होयसल कल्याणी के चालुक्यों के सामंत शासक थे। वंश का संस्थापक सल नामक व्यक्ति था।
- विष्णुवर्धन ‘1116-52 ई. को होयसल साम्राज्य का वास्तविक निर्माता होने का श्रेय दिया जाता है।
- होयसल वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक बल्लाल द्वितीय ‘वीर बल्लाल’ था जिसके शासनकाल में होयसल वंश का चतुर्दिक विस्तार हुआ और उसने ‘दक्षिणनादचक्रवर्ती’ की उपाधि धारण की।
- उसने स्वतंत्र होयसल साम्राज्य की स्थापना की।
- नरसिंह ने संस्कृत और कन्नड साहित्य दोनों को पर्याप्त संरक्षण दिया।
- 1342 ई. में त्रिचनापल्ली के युद्ध में बल्लाल चतुर्थ की मृत्यु के साथ ही वह विजयनगर साम्राज्य में विलीन हो गया।
- चेट्टी- दक्षिणी भारत का एक प्रमुख व्यापारी समुदाय।
मदुरा के पांड्यः
- चोलों के विरूद्ध स्वतंत्र पांड्य साम्राज्य की स्थापना करने वाला नरेश मारवर्मन सुंदर पांड्य 1216-38 ई. था।
- चोल नरेश राजराज तृतीय और कुलोतुंग तृतीय दोनों सुंदर पांड्य के दमन का विफल प्रयास करते रहें।
- पांड्य वंश का अंतिम महान शासक मारवर्मान कुलशेखर 1269-1310 के शासनकाल में प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलों ने पांड्य राज्य की यात्रा कीं
विजयनगर साम्राज्य का उदय
- 1325 ई. में मुहम्मद बिन तुगलक के चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शप ने कर्नाटक में सागर नामक स्थान पर विद्रोह कर दिया और सुल्तान को स्वयं दमन के लिए दक्षिण आना पडा।
- कंपिली की विजय के दौरान मुहम्मद तुगलक ने उस राज्य के अधिकारियों में हरिहर और बुक्का नामक दो भाइयों को बंदी बना लिया।
- आंध्र में प्रोलाय और कपाय नायक नामक दो भाइयों ने तुगलक शासन के विरूद्ध शक्ति युद्ध प्रारम्भ किया।
- 1333 ई. में मदुरा के तुगलक सूबेदार जलालुद्दीन अहसान ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।
- मुहम्मद बिन तुगलक ने हरिहर और बुक्का को मुक्त करके तुगलक सेनापति के रूप में दक्षिण भेजा। उन्होंने कंपिली विद्रोह का दमन किया।
- विद्यारण्य नामक संत के प्रभाववश उन्होंने विजयनगर की नींव डाली और अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।
- हरिहर और बुक्का बंधु संगम के पुत्र थे और उन्होंने अपने पिता के नाम पर ही अपने वंश की स्थापना की।
- अतः 1336 ई. में स्थापित विजयनगर का पहला वंश ‘ संगम वंश’ कहा जाता है।
विजयनगर साम्राज्य 1336-1565
- आधुनिक कर्नाटक के हम्पी नामक स्थान पर विजयनगर साम्राज्य के अवशेष प्राप्त होते है। यह तुंगभद्रा नदी के किनारें अवस्थित है।
- विजयनगर साम्राज्य पर निम्न चार राजवंशों ने क्रमानुसार शासन किया- संगम वंश, सलुव वंश, तुलुव वंश और अरविंदु वंश।
संगम वंशः
- हरिहर 1336-54 ई.:-
- हरिहर और बुक्का दोनों ने राजा की उपाधि धारण नहीं की।
- हरिहर के पुत्र कुमार कम्पा ‘कम्पन‘ ने मदुरा पर आक्रमण किया और इस आक्रमण की जानकारी कंपन की पत्नी गंगादेवी के ‘मदुराविजयम’ नामक पुस्तक में मिलती हैं।
- बुक्का प्रथम 1354-77 ई.
- बुक्का ने राजा की उपाधि धारण न करके ‘वेदमार्गप्रतिष्ठापक’ वैदिकमार्ग का प्रतिष्ठापक की उपाधि धारण की।
- मदुरा पर पुनः आक्रमण कर मदुरा का विलय विजयनगर में किया।
- उसने 1374 ई. में चीन में एक दूतमण्डल भेजा।
- उसने श्रीलंका पर आक्रमण कर विजयी किया और नजराना प्राप्त किया। तेलगू साहित्य को प्रोत्साहन दिया।
हरिहर द्वितीय 1377-1404 ई.
- इसने महाराजाधिराज तथा राज-परमेश्वर की उपाधियां धारण की। हरिहर शिव के विरूपाक्ष रूप के भक्त था।
देवराय प्रथम 1408-22
- उसने तुंगभद्रा नदी पर बांध बनाकर विजयनगर के लिए नहरें निकाली।
- इतावली यात्री निकॉलो काण्टी 1420 ने इस काल में विजयनगर की यात्रा की।
- इसने एक मुद्रा परदा का प्रचलन किया। इसके समय बहमनी शासक फिरोजशाह था।
देवराय द्वितीय 1422-46 ई.
- उसने इम्माड़ी देवराय की उपाधि धारण की। उसने गजबेटकर की भी उपाधि धारण की।
- देवराय ने अपनी सेना में मुसलमानों को भरती करना प्रारंभ किया और इन मुस्लिम सैनिकों को जागीरें दी गई। अरबी घोडों का आयात किया।
- उन्हें मस्जिदें बनाने की स्वतंत्रता प्रदान गई- फरिश्ता
- उसके दरबार में फारस का प्रसिद्ध राजदूत अब्दुर्रज्जाक विजयनगर आया था।
- देवराय स्वयं एक विद्वान था, उसने महानाटक सुधानिधि लिखा था। उसने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा। वह विद्या का महान संरक्षक था। प्रसिद्ध तेलगू कवि श्रीनाथ उसके दरबार में था।
- श्रीनाथ ने ‘हरविलास’ ग्रंथ लिखा था।
- लक्ष्मण नामक अधिकारी जिसे लक्कना कहते थे उसका बांया हाथ था। वह समुद्र का स्वामी था। इसका समुद्री व्यापार पर नियंत्रण था।
- मल्लिकार्जुन 1446-65 ई.
- इसे ‘प्रोढ देवराय’ भी कहा जाता है। चीन यात्री माहुआन आया था।
विरूपाक्ष द्वितीय 1465-85
- संगम वंश का अन्तिम शासक
- इसके समय चंद्रगिरि का शासक सालुव नरसिंह था। सालुव नरसिंह के एक सेनानायक नरसा नायक ने राजप्रासाद पर अधिकार कर लिया। इसे प्रथम बलापहार ‘अपहरण’ कहते है।
सालुव वंश 1485-1505
- नरसिंह सालुव ने नये राजवंश की नींव डाली जो सालुव वंश के नाम से प्रसिद्ध था।
- पुरूषोत्तम गजपति ने विजयनगर पर अधिकार कर लिया और उदयगिरि पर अधिकार कर सालुव नरसिंह को बंदी बना लिया। अरब व्यापारियों से अधिक से अधिक घोडे आयात करने के लिए प्रलोभन एवं प्रोत्साहन दिया।
- 1490 में सालुव नरसिंह की मृत्यु के बाद उसका बेटा इम्माडि नरसिंह उसका उत्तराधिकारी हुआ। सालुव नरसिंह का सेनानायक नरसा नायक उसका संरक्षक बना।
- उसने सारी सत्ता खुद हथिया ली तथा उसने इम्माडि को पेनुकोंडा के किले में नजरबंद कर दिया।
- नरसा नायक की सबसे महत्वपूर्ण सफलता रायचूर दोआब में हुई उसने बीदर के कासिम बरीद के साथ मिलकर रायचूर दोआब के किले पर अधिकार कर लिया।
- 1505 में नरसा नायक के पुत्र वीर नरसिंह ने इम्माडि नरसिंह की हत्या कर डाली।
- वीर नरसिंह विजयनगर के तृतीय राजवंश तुलुववंश का संस्थापक बन गया।
तुलुव वंश 1505-65
- संस्थापक वीर नरसिंह 1505-09
- उसने विजयनगर की सेना का पुनर्गठन किया तथा जनता को युद्ध प्रिय बनाया। पुर्तगाली गवर्नर अल्मेडा के साथ संधि की।
- उसने विवाह कर समाप्त कर दिया।
कृष्णदेवराय 1509-29 ई.
- कृष्णदेवराय वीर नरसिंह का छोटा भाई था। बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘तुजुके-बाबरी’ में भारत के दो हिन्दू शासकों का उल्लेख किया जिनमें राणा सांगा और कृष्ण देवराय था।
- 1510 ई. में अलबुकर्क ने फादर लुई को कालीकट के जमोरिन के विरूद्ध युद्ध-संबंधी समझौता करने और मत्कल एवं मंगलौर के मध्य एक कारखाने की स्थापना की अनुमति मांगने के लिए विजयनगर भेजा।
- अदोनी के निकट विजयनगर की सेनाओं ने बीदर के सुल्तान महमूद षाह को उसके समर्थकों सहित बुरी तरह पराजित किया।
- कृष्ण देवराय ने इस पराजित सेना का कोविलकोंडा तक पीछा किया और इस युद्ध में बीजापुर का सुल्तान यूसुफ आदिल मारा गया।
- कृष्णदेवराय ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर 1512 में रायचुर दोआब पर अधिकार कर लिया। उसने गुलबर्गा पर अधिकार किया।
- उसने बीदर पर आक्रमण करके बहमनी सुल्तान महमूद शाह को बरीद के चंगुल से मुक्त कर पुनः सिंहासनारूढ किया और ‘यवनराज्य स्थापनाचार्य’ का विरूद धारण किया।
- कृष्णदेव ने उम्मतूर के सामंत शासक गंगराजा को पराजित कर श्री रंगम् और शिव सुंदरम पर अधिकार कर लिया। 1513-18 के मध्य कृष्णदेव ने उडीसा के गजपति नरेश प्रताप रूद्र गजपति से चार बार युद्ध किया। इनमें गजपति सेनाऐं पराजित हुई। गजपति नरेश ने अपनी पुत्री का विवाह कृष्ण देव से किया।
- कृष्णदेव की उडीसा में व्यस्तता का लाभ उठाकर गोलकुंडा के सुल्तान कुली कुतुब शाह ने विजयनगर की सीमा पर स्थित पांगल और गुंटूर के किलो पर अधिकार कर लिया।
- कुतुबशाही सेनाओं ने विजयनगर के कोंडविदु के किले पर अधिकार कर लिया। गोलकुंडा का दमन करने के लिए कृष्णदेव ने सालुव तिमम को भेजा जिसने कुतुबशाही सेनाओं को बुरी तरह पराजित किया, पूर्वोक्त प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।
- बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिल ने रायचूर के किले पर अधिकार कर लिया। कृश्णदेव ने गुलबर्गा के किलें में कैद तीन बहमनी शहजादों को मुक्त कर दिया।
कृष्णदेवरायः सेनानायक एवं प्रशासक के रूप में
- कृष्ण देव एक महान योद्धा ही नही वरन विजयनगर के इतिहास में महानतम सेनानायक था। कृष्णदेवराय सफल राजनीतिज्ञ एवं महान प्रशासक भी था। प्रसिद्ध तेलगु ग्रंथ ‘आमुक्तमाल्यद’ से उसकी सैनिक एवं नागरिक प्रशासन की क्षमता का आभास होता है।
- उक्त ग्रंथ में अधीनस्थ अधिकारियों पर नियंत्रण, मंत्रियों की नियुक्ति, न्याय-प्रशासन एवं विदेशनीति के संचालन आदि सारे विषयों का विवेचन किया गया है।
- उसने प्रांतीय प्रशासन का पुनर्गठन किया और नायको को उचित नियंत्रण में रखा। रैयत की शिकायतों के निवारण, स्थानीय प्रशासकों के कुप्रशासन और प्रजा के प्रति उनके अन्याय को समाप्त करने के लिए वह साम्राज्य का दौरा किया करता था।
- उसने तालाबों एवं अन्य नहरों का निर्माण करके सिंचाई की सुविधाओं का ही विस्तार नहीं किया वरन बंजर एवं जंगली जमीन को कृषि-योग्य बनाने की कोशिश भी की। इस प्रकार न केवल कृषि-योग्य भूमि का ही विस्तार हुआ वरन् साम्राज्य के राजस्व में भी वृद्धि हुई।
- उसने विवाह-कर जैसे अलोकप्रिय करों को समाप्त करके अपनी प्रजा को करों से राहत दी। ‘आमुक्तमाल्यद’ में राज्य के राजस्व के विनियोजन और अर्थव्यवस्था के विकास का पर्याप्त वर्णन है।
- इसी ग्रंथ में निर्देश है कि राजा के तालाबों तथा अन्य जन-सुविधाओं की व्यवस्था करके प्रजा को संतुष्ट रखना चाहिए।
- वह महान विद्वान, विद्याप्रेमी, एवं कला का संरक्षक भी था। उसका काल तेलगु साहित्य का -क्लासिक युग’ माना जाता है। उसके दरबार को तेलगु के आठ महान विद्वान ‘जिन्हें अष्टदिग्गज कहा जाता है’ सुशोभित करते थे। अतः उसे ‘आंध्रभोज‘ भी कहा जाता है।
- डोमिंगोज पायस और बारबोसा ये दोनों पुर्तगाली यात्री कृष्ण देवराय के समय आये।
- कृष्ण देवराय के ग्रंथ- आमुक्तमाल्यद
अष्ट दिग्गजः-
- अल्लसिन पेड्डना नामक विद्वान श्रेष्ठ था। वे तेलगु भाषा के पितामह कहलाते है। कालीदास इनकी पुस्तकें ‘स्वरोचितसंभव या मनुचरित’ तथा हरिकथासरनसम्’ है।
- नन्दीनिम्मन - परिजातहरण
- भट्टमूर्ति - नरसभूआलियम
- धुर्जटी -कालहस्तिमहात्म्य
- मल्लन - राजशेखरचरित्र
- अच्युतरामचंद्र - सकलकथा सारसंग्रह
- जिंगलीसुरन्न - राघवपाण्ड्य
- तेनालीराम - पांडुरंग महात्म्य
- कृष्ण देवराय ने नागलपुर नामक नगर बसाया था। यह नगर नागलम्बा माता की याद में बनवाया।
- उसने दो मंदिर बनवाये, हजारा स्वामी मंदिर, विठ्ठल स्वामी मंदिर।
- विधवा विवाह करने वाले युगल को कर मुक्त कर दिया।
अच्युत देवराय 1529-42 ई.
- कृष्णदेव की मृत्यु 1529 में हो गई। उसने अपने जीवनकाल में ही अपने चचेरे भाई अच्युत को अपना उत्तराधिकाी नामजद कर दिया।
- कृष्णदेव के जामाता रामराय को यह व्यवस्था पसंद नही थी। उसने अपने साले सदाशिव का पक्ष लेना प्रारम्भ किया जबकि अच्युत के साले सलक राज तिरूमल और चिनतिरूमल अच्युत का समर्थन कर रहे थे।
- इस्माइल आदिल ‘बीजापुर‘ ने रायचुर और मुदगल के किलों पर अधिकार कर लिया।
- अच्युत ने अपना राज्याभिषेक तिरूपति के मंदिर में करवाया था।
- नायको को नियंत्रित करने के लिए ‘महामण्डलेश्वर‘ नामक एक अधिकारी की नियुक्ति की थी।
- नुनिज नामक विदेशी यात्री इसके समय आया।
- पुर्तगालियों ने तूतीकोरिन के मोती उत्पादक क्षेत्रों पर अपना अधिकार क्षेत्र बढा लिया।
- अच्युत की मृत्यु 1542 ई. में हुई। उसके बाद उसके साले सलक राज तिरूमल अच्युत के अव्यस्क पुत्र वेंकट प्रथम को सत्तारूढ किया, पर वास्तविक सत्ता अपने हाथों में रखी।
- राजमाता वरदेवी अपने पुत्र वेंकट को अपने कुटिल भाई तिरूमल के चंगुल से छुडाना चाहती थी अतः उसने इब्राहीम आदिलशाह से सहायता की याचना की।
- इस पर रामराय इब्राहीम आदिल से जा मिला और सलक राज तिरूमल को पराजित कर अच्युत के भतीजे सदाशिव को गद्दी पर बैठाया।
सदाशिव 1542-70
- सदाशिव के शासनकाल में वास्तविक सत्ता रामराय के हाथ में रही। विजयनगर की पारंपरिक नीतियों के विपरीत उसने समकालीन दक्षिण की मुस्लिम सल्तनतों की अंतर्राज्यीय राजनीति में भी हस्तक्षेप करना प्रारंभ किया।
रक्षसी-तंगडी का युद्ध ‘तालीकोटा का युद्ध’ 1565 ई.
- 1543 में रामराय ने बीजापुर के विरूद्ध गोलकुण्डा तथा अहमदनगर से मित्रता कर ली।
- बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुण्डा तथा बीदर की सम्मिलित सेनाओं ने विजयनगर पर आक्रमण किया और 23 जनवरी,1565 ई. को युद्ध हुआ।
- बरार राज्य तटस्थ रहा था।
- इस संघ का नेतृत्व बीजापुर के शासक अली आदिलशाह ने किया था। इस संघ ने तोपखाने का प्रयोग किया था। संघ की विजय हुई। अहमदनगर के निजामशाह ने रामराय की हत्या कर दी।
अरविंदु वंश
- तिरूमल ‘रामराय का भाई’ ने सदाशिव को लेकर पेनुकोंडा से शासन प्रारंभ किया। 1570 में उसने सदाशिव को अपदस्थ करके सिंहासन हस्तगत कर लिया। उसने अरविदु वंश की नींव डाली। इस वंश का अंतिम शासक रंग तृतीय था।
राज्य-व्यवस्था और राज्यतंत्र
- किसी भी राजतंत्रात्मक व्यवस्था की भांति विजय नगर काल में भी राजा, जिसे ‘राय’ कहा जाता था, राज्य और शासन का केंद्रबिंदु होता था। इस काल में प्राचीन भारत की भांति राज्य की ‘सप्तांग विचारधारा’ पर जोर दिया जाता था।
- राज्य के इन सप्तांगों में राजा सर्वोपरि होता था और उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह सार्वभौम सम्राट के रूप में अपने ओदशों को क्रियान्वित करवाए और प्रजा के हित का ध्यान रखे।
- प्राचीन भारत की राज्याभिषेक -पद्धति के अनुरूप इस काल में राजाओं का राज्याभिषेक किया जाता था। राजा के चयन में राज्य के मंत्रियों और नायको की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। जैसे- कृष्णदेवराय के राज्यारोहण में मुख्यमंत्री तिमम अनेक मंत्रियों एवं प्रधानमंत्री रामराय ने प्रमुख भूमिका निभाई थी।
- राज्याभिषेक के समय विजयनगर नरेश को वैदिक राजाओं की भांति प्रजा-पालन और निष्ठा की शपथ लेनी पडती थी।
- राज्य के सारे युद्ध और शांति-संबंधी आदेशों की घोषणा, दान की व्यवस्था एवं नियुक्तियां तथा प्रजा के मध्य सद्भाव की स्थापना आदि संबंधी समस्त कार्य राजा द्वारा ही सम्पादित किए जाते थे और उससे प्रजापालक होने की अपेक्षा की जाती थी।
- राजा के बाद दूसरा पद ‘युवराज’ का होता था जो सामान्यतः राजा का ज्येष्ठ पुत्र होता था। पुत्र न होने पर राजपरिवार के किसी भी योग्यतम पुरुष को युवराज नियुक्त कर दिया जाता था।
- विजयनगर साम्राज्य में अधिकांश नरेशों ने अपने जीवन काल में ही युवराजों की घोषणा कर दी थी।
- युवराज की नियुक्ति के बाद उसका अभिषेक किया जाता था जिसे ‘युवराज पट्टाभिषेक कहते थे।
- विजयनगर काल में दो बंधुओं के एकसाथ सम्राट होने के दृष्टान्त है जैसे- हरिहर-बुक्का। इस प्रकार दक्षिण की ‘संयुक्त शासक’ परंपरा का इस काल में भी निर्वाह हुआ।
- राजा के रूप में अभिषेक करते समय यदि युवराज अल्पायु होता था तो राजा या तो अपने जीवनकाल में ही किसी मंत्री को उसका संरक्षक नियुक्त कर देता था अथवा मंत्रिपरिषद के सदस्य किसी योग्य व्यक्ति को अल्पायु राजा के संरक्षक के रूप में स्वीकार कर लेते थे।
- विजयनगर नरेश केंद्रीय शासन व्यवस्था की धुरी थे और वे कृषक समुदाय के शोषण, औद्योगिक वर्गों के मध्य आपसी विवाद और धार्मिक सम्प्रदायों के मध्य आपसी संघर्ष को दूर करने में काफी रूचि लेते थे।
- विजयनगर नरेश अपने अभिलेखों में बार-बार धर्म के अनुसार अर्थात् न्याय और समता के सिद्धांतों के अनुसार शासन करने का उल्लेख करते हैं।
- विजयनगर नरेशों का चाहे व्यक्तिगत धर्म कुछ भी रहा हो लेकिन उन्होंने धर्म के मामले में एक धर्मनिरपेक्ष् नीति का अनुसरण किया।
- कृषि-उत्पादन की वृद्धि और व्यापार की समृद्धि उनके शासन का एक प्रमुख लक्ष्य होता था। इस दिशा में कृषि योग्य भूमिका विस्तार किया, सिंचाई के साधनों को उन्नत किया गया, विदेश व्यापार को प्रोत्साहन दिया गया और औद्योगिक प्रगति के लिए उपयुक्त परिस्थितियों को जन्म दिया गया।
- विजयनगर नरेश न्याय और दंड को शांति और सुरक्षा के लिए परम आवश्यक मानते थे। सम्राट स्वयं न्याय का सर्वोच्च न्यायालय होता था।
- विजयनगर साम्राज्य में राजा की सत्ता अनियंत्रित या निरंकुश नहीं थी। उसके निरंकुश न हो पाने का सबसे बड़ा कारण यह था कि राजा स्वयं को प्रजा के प्रति उत्तरदायी समझता था और व्यापारिक निगम, ग्रामीण संस्थाएं और धार्मिक संस्थाओं से जुड़ी जन-समितियां उसकी निरंकुशता के उदय में बाधा बनी हुई थी।
- राजा को प्राचीन स्मृति-विधानों के अनुसार शासन करना और स्मृतियों द्वारा प्रस्तावित कानून को क्रियान्वित करना होता था, अतः उसके निरंकुश होने की संभावना बहुत कम होती थी। मंत्रिपरिषद भी राजा की निरंकुशता में बहुत बड़ी बाधा थी।
- ‘आमुक्त-माल्यद’ में इस आदर्श को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है- ‘अपनी प्रजा की सुरक्षा और कल्याण के उद्देश्य को सदैव आगे रखों तभी देश के लोग राजा के कल्याण की कामना करेंगे और राजा का कल्याण तभी होगा जब देश प्रगतिशील और समृद्धिशील होगा।
- राज-परिषद राजा की सत्ता को नियंत्रित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। राजा राज्य के मामलों और नीतियों के संबंध में इसी परिषद की सलाह लेता था। यही परिषद राजा का अभिषेक करती थी और देश का प्रशासन चलाती थी।
- इस परिषद में प्रांतीय सूबेदार, बड़े-बड़े नायक, सामंत शासक, व्यापारिक निगमों के प्रतिनिधि आदि शामिल होते थे। इस प्रकार यह परिषद काफी वृहत् होती थी।
- इस परिषद के बाद केन्द्रीय मंत्रिपरिषद होती थी जिसका प्रमुख अधिकारी प्रधानी या महाप्रधानी होता था। मंत्रिपरिषद् में संभवतः 20 सदस्य होते थे।